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गोंडी भाषा का इतिहास

 


सम्रुद्ध गोन्डी भाषा का  वैभवशाली इतिहास  ऐसा है  




"गोण्डी" लैग्वेंज में क्षमता है देश को एकजुट करने का

"गोण्डी" लैग्वेज ही हैं जिसकी जड़ें सुदूर तमिलनाडु अंदमान से लेकर कश्मीर- ब्लुचिस्थान  के ऊतरी पठारों तक हैंगोण्डी लैग्वेंज में  प्रथम होमोसेफियंस(मराबेरा ऐज) , पुरापाषाणकाल (कल बेरा ऐज) से लेकर हड़प्पा मोहनजोदड़ो मेहुला (कांसा बेरा ऐज) के इतिहास को समझने का माद्दा हैं गोण्डी लैग्वेज में बौद्ध साहित्यों से लेकर संगम साहित्यों को पढऩे कि क्षमता हैगोण्डी लैग्वेंज मे क्षमता है अपने डीएनए को पढने कि पर अभी अभी ऊपजे तथाकथित राष्ट्र वादियों ने सत्ता के लालच में इस महान यूनिवर्सल लैग्वेंज गोण्डी भाषी क्षेत्रों को तुकड़े- तुकड़े कर देश कि वास्तविक एकता कि जड़ो पर कुठाराघात करने कि कोशिश कि हैं-

प्रमाण :-  सगंम युग के सबसे महत्वपूर्ण चोल राजाओं मे से एक करिकाल (190 AD) का नाम उनके "जले हुऐ पैर" अर्थात काला पड़ गए पैर के नाम से पड़ा था ऐसा जिक्र है, गोण्डी मे पैर के लिए "काल" शब्द का इस्तेमाल होता हैं, इस प्रकार "काले रंग के पैर वाले राजा"-- करिकाल।


प्रशासनिक ईकाईयों में भी पारम्परिक ग्राम और जिला सभाओं के लिए नार- उर, नाडु और राज्य इकाई के लिए "कोटम्" शब्दों का इस्तेमाल किया गया है, जो गोण्डीयन प्रशासनिक व्यवस्था के मूल लक्षण हैं ,इसी चोल वंश में सबसे शक्तिशाली शासक राजेंद्र चोल हुऐ जिन्होंने ऊतरी गंगा मैदानों को और सुदूर जावा सुमात्रा मलय तक विजय प्राप्त किया  इसमें महत्वपूर्ण यह हैं कि उन्होंने इन विजय अभियानों के बाद "गोण्ड" (अर्थात विजेता) कि उपाधि धारण किया जैसे "गंगैगोण्डचोल" "मुंडीगोंडचोल" आदि  इन्ही नामों से उन्होंने नगर भी स्थापित किऐ।

गोण्डी लैग्वेज को उपेक्षित करने के कारण ही आज भी  इस देश की भाषाओं को साऊथ इण्डियन भाषा और नार्थ इण्डियन भाषा के रुप मे दो भागों में बांटकर देश के इतिहास को समझने का असफल प्रयास किया जाता रहा है जबकि गोण्डी लैग्वेज कि संघनता अभी भी मध्य भारत में मौजूद है , इसी तरह अशोक के शिलालेखों मे प्रयुक्त खरोष्ठी लिपि और  वर्तमान में मौजूद ब्रुहुई लिपि (ब्लुचिस्थान) में गोण्डी लैग्वेज के गुण मौजूद हैं।

 इसी तरह अशोक के दादा महान चंद्रगुप्त ने तिसरी सदी ईपू में  सिकंदर के विजय अभियान को रोकने के बाद "मुरियान" इलाके/  पार्सियन इलाके (मोहनजोदड़ों सभ्यता के विकसित क्षेत्रों) पर पुनः कब्जे के बाद "मुरिया" उपाधि धारण कर पुराने वैभव को पुनर्जीवित करने की कोशिश किया था।


 तात्कालिन बौद्ध साहित्यकार इसलिए उन्हें अनार्य साबित करते हैं,माता पिता का नाम भी  "मुरा -मोरा" मिलते है। चाणक्य कौटिल्य के "अर्थशास्त्र" अनुसार भी वे सतपुड़ा पार के घने जंगलों में मौजूद गोटूल लयोरो कि तरह के मुखवान  के जैसा युवक था जिसमें नेतृत्व और वाक कौशल का गुण परिलक्षित हो रहा था।मुरियान गोटुल लयोर के बौद्धिक क्षमता को देखकर चाणक्य द्वारा वृहद गोण्डवाना क्षेत्रों पर जनता की स्वीकारिता  के लिए राजा के रूप में चंद गुप्त को चालाकी से तात्कालिक नंद राजाओ के विरुद्ध प्रोजेक्ट किया था। अंतिम समय में चंद्र मोर्य द्वारा दक्षिण भारत की ओर गमन और  अपनी मृत्यु संस्कार विशुद्ध कोयापुनेमियो कि तरह करना शायद इसिलिए तात्कालिक सिंकदर के सेनापति सेल्युकस के द्वारा भेजे गए यूनानी लेखक मेग्नथनीज ने चंद्र गुप्त को "सैट्रोकोयाटस" नाम ही संबोधित किया था।  ऐसे बहुत से रहस्य है जिन्हें गोण्डी लैग्वेज ही सुलझा सकती हैं।

हाथी गुफा अभिलेख के अनुसार सम्राट अशोक को भी नैतिकता का भान और हृदय परिवर्तन अपने दादा के मूल वंशजों से युद्ध नरसंहार के बाद ही होता हैं जैसा कि गोण्डी नाम."कल ईगा" का तात्पर्य है वैसे ही #कंलिगां अभेद्य गढ़ था। 

गौतम सिद्धार्थ को भी पुनेमी ज्ञान -"बौद्ध" भी उनके प्रथम गुरु आलार "कलयाम" गोण्ड के कारण ही संभव हुआ.. जिन्होंने कोटूम जंगलों में मर-मरा (वृक्ष) के ज्ञान रहस्यों को जानने पुनने कि तकनीक बताया । जिससे कालांतर में उन्हें बोदी मरा(पेड़) के नीचे ही मिले ज्ञान के कारण "बौद्ध" कहलाऐ।


 हड़प्पीयन सभ्यता भी वास्तव में गोण्डीयन मुरियान निर्यात हाटुम केंद्र थे। जिन्हें समकालीन    सुमेरियन साक्ष्यों ने मेहुला कहा और बाद के आर्य ग्रंथों ने मुरदिर्योण कहा है...यंहा मुरियान शब्द मूल बीज से सम्बंधित हैं जो गोण्डवाना का केंद्र हैं। गोण्ड समुह कि एक मूल जनजाति मुरिया अब भी निवास रत हैं...जंहा आज भी गोटूल एजुकेशन सिस्टम मौजूद है..जंहा तीन सींगधारी लिंगो(पशुपति मुहर), गोण्डीयन याया (मातृदेवी मूर्ति).गोटूल लयाह द्वारा इस्तेमाल कि जाने वाली पनिया(कंघी- चाहुंदड़ो से प्राप्त ) आदि के साक्ष्यों का आज भी अनवरत  प्रयोग किया जाता हैं।  आज हासपेन कंगाली दादा जी के ग्रंथों व अनेक देशी विदेशी इतिहासकारो ने मुरियान सभ्यता

सम्रुद्ध गोन्डी भाषा का  वैभवशाली इतिहास  ऐसा है। भाषाशास्त्रवाले झिन्गुर गोन्डी भाषा यह दक्षिण मध्य द्रविडियन भाषा है कहते है तो कोई प्रोटो द्रविडीयन भाषा है कहते गोन्डी भाषा बोलनेवाले गोन्ड़ कुल 2 करोड़ 63 लाख 2 हजार है और जिनकी मात्रुभाषा गोन्डी है वे 9 करोड़ 65 लाख 4 हजार है । इसमे विभिन्न गण के लोगो का समावेश है जैसे राज, परधान, कोलाम, माडीया, कोरकू इत्यादि . . इसके साथ साथ गणभाषा का भी अन्तर्भाव गोन्डी मे किया किसिने गोन्डी भाषा की कोई लिपी नही कहा तो डा.ख्रिस्ताफ़ व्हान फ्युरर हायमेन्डार्फ, हिरालाल रसेल, एल्विन जनरल कनिन्गाहेम, डा.जे एस धुर्ये और सोहनलाल चुडामनी इत्यादि सन्शोधको के मतानुसार गोन्डी लिपी थी और है डा.हयमेन्डार्फ इन्होने अपने "Adiwasi Of Andhra Pradesh" और  "The Raajagond of Adilabad District" इन किताबो मे गोन्डी का सचित्र वर्णन किया है केनडा की भाषा तद्न्य सुजी आन्द्रेस ने भारत आकर अपना "Construction of Koi Language" यह ग्रंथ लिखा डब्ल्यू वी ग्रिगसन इन्होने "Madiyaa Gond of Bastar" यह सन 1938 मे लिखा, जी ए ग्रिर्सन इन्होने "Linguistic Surve of Indiya" इस ग्रंथ के चौथे खंड मे (Munda and Dravidian Language) बस्तर और चन्द्रपुर जिले के गोन्डी भाषा अन्तर्गत "So Called Mariya Dialec" का अध्ययन किया।


          गोन्डी भाषा उत्पत्ती काल के संबंध मे समाजशास्त्रियो के मतानुसार भिन्नता पायी जाति है । गोन्डी समाजशास्त्री मन्साराम कुमरे इनके मतानुसार गोन्डी का उद्गम इ.स.पूर्व 8000 साल, अशोक कुलमेठे एवं गोन्डी इतिहासाचार्य मोतिरावण कन्गाली इनके मतानुसार 10000 साल पूर्व और गोन्डी लिपी खोज मे जिन्होने अपना महत्वपूर्ण योगदान रखा वे बालाघाट के मुंशी मन्गलसिह मसराम और चन्द्रपुर के प्रकाश सलामे इन्होने गोन्डी भाषा उत्पत्ती का काल इ.स.पूर्व 12500 बताया है , किंतु कुछ भी हो जाय गोन्डी भाषा का कर्यकाल कमसे कम इ.स.पूर्व 10000 समजना पडेगाही  रेव्हरन्ड़ एस बी पटवर्धन इन्होने सन 1935 मे लिखि अपनी किताब "First Gondi Mannual" मे आर्य भारत मे आने से पहले गोन्डी पूरे देश की जनमाध्यम भाषा थी ऐसा कहा है . . . सन 1978-79 मे प्रो.हायमेन्डार्फ इनकी अध्यक्षता मे विद्यापिठ अनुदान आयोग की साहायतासे जो चर्चासत्र लिया उसमे भी भारत की मुलभाशा गोन्डी होने का दावा किया था।

          महाराष्ट्र मे भी गोन्डी भाषा पर विस्त्रुत अध्ययन किया गया फारेस्ट मे काम करनेवाले अधिकारी विश्वास भालचन्द्र जोशी इन्होने गोन्डी (कोयान्ग) यह किताब 1964 मे प्रकाशित की आहेरी इटापल्ली मे ख्रिश्स्चन मिशन मे काम करनेवाले रेव्हरन्ड़ एस बी पटवर्धन इन्होने गोन्डी मेन्युअल यह ग्रंथ सन 1935 मे लन्डन मे प्रकाशित किया डा.मिचेल इन्होने गोन्डी भाषा व्याकरण लिखा, बैतुल जिल्हे मे बोलि जानेवाली गोन्डी के संबंध मे सी जी ट्रेल्व्ह इन्होने ग्रंथ लिखा, सन 1919 मे सेतू माधव पगडी इन्होने गोन्डी व्याकरण पुस्तिका लिखि, मानववन्शशास्त्री एवं लन्डन विद्यापिठ के प्रोफ़ेसर हायमेन्डार्फ सन 1940 मे गोन्डी प्रायमर लिखा और अनिल थत्ते इन्होने सन 1972 मे भामरागड़ची भ्रमणगाथा यह ग्रंथ पुना से प्रकाशित किया ।


          गोन्डी भाषा सबसे उल्लेखनिय कार्य आचार्य मोतिरावन कन्गालिजी का रहा  गोन्डी भाषा उद्विकास लेकर गोन्डी लिपी खोज तक उनका प्रयास सराहनिय रहा सैन्धवी लिपी का गोन्डी मे उद्वाचन, गोन्डी करियाट, गोन्डी हिंदी मराठी डिक्सनरी यह उनके प्रमुख ग्रंथो ने गोन्डी को राष्ट्रीय दर्जा बाहाल किया  गोन्डी भाषा इस देश के एक बडे समुदाय की प्रमुख भाषा है यह निर्विवाद सत्य है । करोडो की तादात मे बोलि जानेवाली यह भाषा किसी आदिवासी समुदाय की होने के कारण संविधान सुचिसे वंचित है , जानबुझकर इस भाषा को आठवी सूचि मे दर्जा बाहाल नही किया जा रहा है । जिस देश मे 203 विदेशी लोग गोन्डी से चुराई हुई संकरित (हायब्रिड़) और उधार की भाषा सन्स्क्रुत बोलते है वह आठवी सूचि मे है । पाली बोलनेवाले 10 लोग भी मैने देखे नही  ऐसी उधार की भाषा जो गोन्डी से उत्पन्न हुयी वह आठवी सूचि मे दर्ज है । जो लोग यहा के नही उनका सब यहा है और जो लोग यहा के मुलवासी है उनका कुछ नही यहा  क्या माजरा है भाई? सबसे बडी बात यह है की गोन्डी भाषा पर सन्शोधन करनेवाले भी बडी बडि हस्तिया विदेशी है । गोन्डोने जो सन्शोधन किया उसका कोई उल्लेख नही किंतु विदेशी गोन्डी के प्रति पूरे देश मे फेमस है ।वो भाड़खाऊ लोग फेमस है जो गोटुल को युवाओ के लैन्गिक मस्तिका अडडा समजते ।


मारोती उइके

वर्धा

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