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गोंड समाज में जय सेवा क्यों कहा जाता है?

 जय सेवा का अर्थ

जय सेवा मंत्र गोंडवाना कोयापुनेम का आधार है| कोयापुनेमेंम का अर्थ है - जिसमे समस्त जगत के जीवों का कल्याण नीहित है, यह धर्म का निर्माण आदिकाल से जो हमें जीवन में प्रकृति से प्रेम का सिख देता है। और  मानव को प्रकृति के समीप लाकर सभी जीवो  को शांतिमय तरीक़ों से वातावरण मे रहने व जीने की कला सीखाता है जयसेवा मंत्र अति शक्ति शाली है जो हमें सेवा भाव करने और प्रकृति से प्रेम करना सिखाता है। 


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गोण्डी धर्मगुरू पारी कुपारलिंगो द्वारा जय सेवा वर्णन इस प्रकार दिया गया है।

सभी जन्मदाताओं की सेवा


प्रत्येक जीव को इस सृष्टि में जन्म देने वाली दो महाशक्तियां हैं। वे हैं सल्लां और गांगरा(माता और पिता) शक्ति के धारक है।जिन माता पिताओं के प्रति हमें सेवा करने का भाव सिखाता है। हमारा तन-मन और बुद्धि उन्ही की देन है। जब हम पैदा हुए तो असहाय थे, न तो चल फिर सकते थे, न भोजन प्राप्त कर सकते थे, न ही अपनी रक्षा कर पाते थे. उस समय माता पिता ने ही स्वयं कष्ट उठाकर हमारे पैदा होते ही हमारी सेवा किये। उस समय यदि माता पिता की सेवा नहीं मिलती तो हम जीवित नहीं रह पाते। उन्होंने हमें नहलाये, धुलाये, मल-मूत्र साफ़ किये, स्तनपान कराये. इसलिए माता-पिता के प्रति हमारा भी कर्तव्य बनता है की जब वे वृद्ध हो जावें तो हम उनकी पूर्ण सृद्धा और भक्ति से निस्वार्थभाव से तन, मन और धन से सेवा करें. जन्मदाताओं की सेवा ही सल्लां गांगरा की सेवा और देवो की पूजा के बराबर है। जिसने माता पिता के महत्व को नहीं जाना, वह फडापेन को नहीं पहचाना। माता पिता को छोड़कर मंदिरों में मूर्ती पूजा किया, तीर्थों में घूम-घूम कर स्नान किया, वह व्यर्थ ही अपने जीवन के बहुमूल्य समय बर्बाद किया। कोयापुनेम में जन्मदाताओं की सेवा को सर्वाधिक प्राथमिकता दी गई है। महिलाओं के लिए सास-ससुर की सेवा सर्वोपरी है। जिस कुल में महिलाएँ विवाह करके लाई जाती हैं, उस कुल के वृद्धजन उनके लिए पूज्यनीय होते हैं.


अपने संतान की सेवा


युवा स्त्री-पुरुषों के विवाहोपरांत संतान की उत्पत्ति होती है. उनकी सेवा का पूर्ण दायित्व उनके माता पिता का होता है। यदि माता पिता अपने बच्चों को ठीक ढंग से सेवा एवं परवरिश करेंगे तो वे भविष्य में होनहार, योग्य नागरिक बनेंगा. बुद्धिवान एवं विवेकशील बनेंगा, चरित्रवान बनेंगा,  उनमे सुसंस्कार का समावेश होगा. अधिकांश पढ़े-लिखे सभ्य कहलाने वाले व्यक्ति अपने बच्चों की सेवा स्वयं न करके किसी नौकर नौकरानियों से सेवा व परवरिश कराते हैं। अधिकांश शहरी माताएं अपने स्तन का दूध अपने बच्चों को नहीं पिलाती और बाजार से दूध खरीद कर पिलाती हैं। वे सोचती हैं कि स्तनपान कराने से उनकी सुन्दरता नष्ट हो जाएगी। परिणामस्वरूप उनकी संतान संस्कारित नहीं हो पाते। अस्वस्थ, कमजोर, विवेकहीन, शीलगुणहीन होते हैं. इसलिए कोयापुनेम में अपनी संतान की सेवा स्वयं करने का विधान है।


सभी सगाजनो की सेवा


गोंडी धर्म में सम और विषम गोत्र धारक आपस में एक-दूसरे के सगाजन कहलाते हैं। इन्ही सगाजनों के बीच आपस में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित होते हैं। गोंड समाज में सभी धार्मिक और सामाजिक कार्य सगाजनों द्वारा संपन्न कराये जाने का विधान है। समाज में विवाह, मृत्यु संस्कार या अन्य कोई भी देव पूजन कार्यों में ब्राम्हण, से कोई भी कार्य नहीं कराये जाते, ये सभी कार्य सगाजनों द्वारा ही संपादित किये जाते हैं. इसलिए सगाजनों के बीच सामंजस्य और सेवा भाव आवश्यक है, सम और विषम गोत्रीय सगाजन आपस में एक-दूसरे के पूज्यनीय होते हैं। उन्हें एक दूसरे की सेवा करनी चाहिए। जब भी जरूरत पड़े, सगाजन आपस में सेवा एवं सहयोग करके समस्त गोंडवाना समाज का कल्याण करते हैं। इस प्रकार की सगा सामाजिक व्यवस्था विश्व के किसी भी धर्म में नहीं हैं।


जगत के दीन दुखियों की सेवा


गोंड समाज में कुछ धनी लोग हैं और अधिकांश निर्धन है। ऐसे व्यक्ति विवाह या मृत्यु संस्कार के अवसर पर या बीमारी पड़ने पर मजबूर हो जाते हैं। ऐसे में समाज के धनी लोगों का कर्तव्य बन जाता है की वे ऐसे निर्धनों की वक्त आने पर यथासंभव सेवा करे एक व्यक्ति न करे तो समाज के व्यक्ति चंदा करके उसे कष्ट से बचाने का प्रयत्न करना चाहिए, दीन दुखियों की सेवा निःस्वार्थ भाव से होनी चाहिए ये भी हमारे समाज रूपी शरीर के अंग हैं। शरीर का एक अंग विकारग्रस्त हो जाने पर पूरा शरीर अस्वस्थ्य हो जाता है।शरीर की कुशलता के लिए सभी अंगो का स्वास्थ्य होना आवश्यक है। इसी प्रकार समाज में सभी का विकास एक साथ होना आवश्यक है।


सम्पूर्ण धरती की सेवा


धरती से अनाज पैदा करना, वृक्ष लगाकर फल प्राप्त करना, धरती को खाध डालकर उपजाऊ बनाना ही धरती की सेवा है। गोंडीयनों का मुख्य व्यवसाय कृषि है। कृषि कार्य करना आदिवासी की पहचान समझा जाता है. कृषि कार्य में हिम्मत और मेहनत की जरूरत होती है। भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, बरसात, थकान सभी को सहन करके गोंड धरती की सेवा करता है। पसीना बहाता हुआ सुख की आशा में अथक परिश्रम करता है। अन्न उपजाता है और विश्व का भरण पोषण करता है। धरती माता की सेवा जो व्यक्ति सही लगन से करता है वह कभी भूख से नहीं मरता और कभी भीख नहीं मांगता। धरती माता की गोद में जितने जितने वृक्ष उगाएंगें। वह उससे कई गुनी अधिक फल प्रदान करता है, बड़े-बड़े कारखाने स्थापित करने से, गोला बारूद बनाने से धरती की सेवा नहीं होती है। बल्कि धरती की हरियाली नष्ट होती है. धरती की सेवा करने के लिए अधिक से अधिक अनाज पैदा करें, फलदार वृक्ष लगायें, समाज कल्याण के लिए सेवा भाव प्रत्येक कोया जनों में होना चाहिए, एक पवित्र कार्य समझकर उसे करना चाहिये।


जगत के सम्पूर्ण जीव-जंतु की सेवा


हमें जगत के सभी जीवों की सेवा के लिए धर्मगुरु पारी कुपार लिंगो द्वारा जीवो की रक्षा के लिये बाँट दिया गया है। सभी सगाजन को सभी देवों का सम्मान करना चाहिये।व पेड़-पोधे के सभी सभी सगा जनो को अपने-अपने पेड़ों को पूजना होता है।


जैसे कि सेवा हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण है,यह सम्पूर्ण जगत का निर्माण सेवा से ही हूआ है। इसलिये सेवा एक दूसरे के सम्मान के लिए व अभिवादन के लिए प्रयोग किया जाता है।


जिस प्रकार दो सिक्ख आपस में अभिवादन करते समय “सत श्री अकाल ” शब्द का प्रयोग करते हैं, मुसलमान अस्सलाम वालेकुम करते हैं, ईसाई गुडमार्निंग कहतें हैं, हिन्दू जयराम जी की कहते हैं. इसी प्रकार हम गोंडी धर्मी लोग अभिवादन करते समय “जय सेवा”कहते रहें. आदि गुरु व्दारा बताया गया यह सेवा मंत्र कोया समाज का मूल मंत्र है. हमे इस मंत्र का जाप श्रृद्धा एवं भक्ति के साथ करना चाहिए इससे हमे आत्म शक्ति एवं प्रेरणा की प्राप्ति होती।


जय सेवा जय गोडवाना



टिप्पणियाँ

Unknown ने कहा…
Mujhe jey seva kha pura jankari chahiye hai ourjanmdin bi chaiye hai

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